Homeबिहारजाति आधारित जनगणना के मुद्दे पर वोटबैंक दुरूस्त करने की बेचैनी!

जाति आधारित जनगणना के मुद्दे पर वोटबैंक दुरूस्त करने की बेचैनी!

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पटना: बिहार में सत्ता पक्ष से लेकर विपक्ष तक जाति आधारित जनगणना कराए जाने की मांग कर रहा है।

इस मांग को लेकर बिहार का एक प्रतिनिधिमंडल मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी मिल चुका है।

अब जाति आधारित जनगणना पूरे देश में होगी या नहीं, यह तो केंद्र सरकार पर निर्भर है, लेकिन बिहार में इस मांग को लेकर बहस तेज हो गई है।

कहा जा रहा है कि सभी राजनीतिक दल इस मांग को लेकर अपने वोटबैंक को मजबूत करने की रणनीति पर काम कर रहे हैें।

जानकार कहते भी हैं कि जातीय जनगणना की मांग करने वाले दल जनसंख्या के आधार पर सरकारी योजना बनाकर समावेशी और सर्वांगीण विकास की बात तो जरूर कर रहे हैं, लेकिन उनका मुख्य एजेंडा ओबीसी का सबसे बडा हितचिंतक बताकर वोटब्ैांक को मजबूत करने का है।

बिहार के वरिष्ठ पत्रकार फैजान अहमद भी कहते हैं, कोई भी राजनीति पार्टी हों, वे भले ही जो बातें कर लें, लेकिन उनका मुख्य मकसद वोटबैंक मजबूत करना ही होता है। जातीय जनगणना उससे अलग नहीं है।

इस मुद्दे पर भी ओबीसी मतदाताओं पर जिनकी संख्या 52 प्रतिशत बताई जाती है, उस पर है। वे इनके सच्चे हितैषी बनकर इसका क्रेडिट लेने की होड में हैं।

अहमद कहते भी हैं कि क्षत्रीय दलों का उदय जाति आधारित होता है और वहीं संबंधित पार्टियों का कोर वोट होता है।

ऐसे में राजनीतिक दल भले ही किसी खास जाति की राजनीति करते हों, लेकिन उनका निहितार्थ जाति की जनसंख्या जानने का हैं, जिससे वे अपनी चुनावी रणनीति तय कर सकें।

अहमद का कहना है कि जातीय जनगणना में कोई बुराई भी नहीं है। इससे जातियों की संख्या पता चल सकेगा तथा सरकार को भी जाति वर्ग के लिए योजानाएं बनाने में मदद मिलेगी।

बिहार की राजनीति जातीय आधार पर होती है, यह बात किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में राजद जाति आधारित जनगणना को लेकर मुखर है और सत्ता पक्ष जदयू का भी उसे साथ मिल गया है।

बिहार विधानसभा और विधन परिषद में सर्वसम्मति से इस मामले का प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार को भेजा गया है।

राजद के नेता तेजस्वी यादव भी कहते हैं कि जातीय जनगणना देश के लिए बहुत जरूरी है।

उन्होंने कहा कि वर्ष 1931 में जाति के आधार पर जनगणना हुई थी, जिसके बाद देश में कई परिवर्तन हुए हैं।

वैसे, कहा तो यह भी जा रहा है कि जाति आधारित जनगणना केा लेकर जो भी दल संबंधित जातियों के हितैषी बनने की होड में हैं, उन्हें इस जनगणना के बाद नुकसान भी उठाना पड सकता हैे।

संबंधित जातियों की संख्या अगर अधिक हुई तो पार्टी में भी वे जातियां अधिक हिस्सेदारी की मांग करेंगी।

वेसे, भाजपा के नेता और सांसद सुशील कुमार मोदी भी कहते हैं, भाजपा कभी भी जाति जनगणना के खिलाफ नहीं रही है।

साथ ही यह विधान सभा और विधान परिषद में पारित प्रस्ताव का एक हिस्सा था।

उन्होंने यह भी कहा कि इससे पहले साल 2011 में भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे ने जाति जनगणना के समर्थन में पार्टी का प्रतिनिधित्व किया था।

मोदी ने कहा, ब्रिटिश राज के तहत 1931 में पिछली जनगणना के समय बिहार, झारखंड और ओडिशा एक थे।

उस समय बिहार में लगभग 1 करोड़ की आबादी में केवल 22 जातियों की जनगणना हुई थी।

अब 90 साल बाद आर्थिक, सामाजिक, भौगोलिक और राजनीतिक परिस्थितियों में बड़ा अंतर आया है।

जाति जनगणना कराने में कई तकनीकी और व्यावहारिक परेशानियां हैं फिर भी भाजपा इसके समर्थन पर विचार कर रही है।

वैसे, भाजपा के कई नेता आर्थिक आधार पर जनगणना कराने की बात कर रहे है।

बहरहाल, जाति आधार पर जनगणना को लेकर सभी राजनीतिक दल अपने फायदे और नुकसान को देखकर अपने मोहरे चल रहे हैं, अब किसे लाभी होता है या किसे नुकसान यह तो आने वाला समय तय करेगा।

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